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गजेटियर की कहानी ..

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अंग्रजी शासकों ने शासन को सुगम बनाने के लिये प्रत्येक जनपद के बारे सभी प्रकार की जानकारियां जुटाकर उसे गजेटियर के रूप में संकलित करने की अवधारणा को आरंभ किया था। सर्वप्रथम एक अंग्रेज सिविल सेवक (आइ0सी0एस0) विलियम विल्सन हन्टर ने 1861 में भारत में ब्रिटिश शासन के भौगोलिक कोश को तैयार किये जाने की रूप रेखा तैयार की।(अरे!.. वही 'हन्टर शिक्षा आयोग' वाले हन्टर जी..) श्री विलियम 1862 में बंगाल में नियुक्त हुये और वहीं से उन्होंने अपनी इस महत्वपूर्ण योजना पर कार्य आरंभ करते हुये  आंकडे जुटाने आरंभ कर दिये। पहली बार सभी संकलित सूचनायें 1881 में 'द इम्पीरियल गजेटियर आफ़ इण्डिया' के नाम से प्रकाशित हो सकी। अग्रेतर वर्षो में इसी प्रकार की सूचनाओं का संग्रहण ब्रिटिश शासन के अधीन भारत के सभी जनपदों के लिये किया गया और उन्हें प्रकाशित करते हुये डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का नाम दिया गया।

मेरी आशंका निर्मूल नहीं थी....!

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कल  मैंने विनोबा भावे के प्रति राजस्व प्रशिक्षण संस्थानों की उदासीनता का बिंदु उठाया था। भूदान आंदोलन के प्रणेता और संत विनोबा भावे जी जयंती के अवसर पर कल मैंने अपने कार्यालय में उनके चित्र पर माल्यार्पण के बाद ही सामान्य कार्यालयीय दिनचर्या का आरम्भ किया। साथ ही साथ दिन में आने वाले प्रबुद्ध आगंतुकों को भी संत के चित्र पर पुष्पांजलि के लिए प्रेरित करता रहा।इसी कड़ी में बार ऐसोसिएशन के सम्मानित अध्यक्ष जी भी  आये और एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह पुष्पांजलि अर्पित करने के अनुरोध का अनुपालन करने के उपरान्त सामने बैठ गए। जिस उद्देश्य के लिए थे उस पर चर्चा के उपरान्त अनायास पूछ बैठे-- "ये जिन सज्जन के चित्र पर आपने माल्यार्पण कराया वो आप गुरूजी है क्या..?" प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर मैंने भी प्रश्न ही पुंछ लिया- "नहीं..! लेकिन क्या आप इस चित्र वाले सज्जन को पहचानते हैं न..?" उनका जवाब नकारात्मक था। बोले- "नहीं तो ..! मैं समझ रहा था कि ये आपके पारिवारिक ईष्ट गुरु होंगे तभी आप इनका इतना सम्मान कर रहे हैं..!" मैं कुछ पल के लिए निःशब्द हो गया, फिर बताया- &quo

शिक्षक दिवस पर गुरु घंटाल को भी नमन

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जीवन यात्रा से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है। सो आज का विशिष्ट नमन जीवन यात्रा के उन अनुभवों को जो कड़वे होने के कारण सबसे अच्छे शिक्षक सिद्ध हुए। जीवन यात्रा के प्रारम्भिक चरणों का ऐसा अनुभव जो याद आ रहा है वो कक्षा सात के आसपास का है। स्थान वही पौड़ी का डी ऐ वी कालेज.... सहपाठियों में कई नाम अच्छे थे लेकिन एक नाम था सलिल.....जी हाँ ..! शायद सलिल ही नाम था उसका...! मैं नया नया प्रभावित हुआ था उसके लंबे बालों को देखकर..! कॉपी पर लिखते हुए उसके बाल आँखों पर आ जाते तो वह बड़ी स्टाइल से सिर को झटक कर उन्हें वापिस अपने सिर पर ले आता । उसे न होम वर्क की चिन्ता रहती और न ही कापियों के कवर फटने की..! वो कक्षा में पीछे की सीट पर बैठता था और मैं अगली पंक्ति में।सलिल जी से मुलाक़ात जा संयोग कुछ इस वजह से बना कि विद्यालय में किन्ही बड़े अफसर का निरीक्षण होना था सो अगली पंक्ति में बैठने वालो को पीछे की पंक्तियों में अलग अलग स्थान पर समायोजित किया गया था ताकि निरीक्षणकर्ता को पिछली पंक्तियों में भी होमवर्क पूरा करने वाले अच्छे छात्रो का आभास मिल सके। उस निरीक्षण का क़िस्सा फिर कभी सुनाऊंगा लेकिन आज सलिल के साथ