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मैं और मेरा अहं

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'तुम' पर तो  बहुत सी पंक्तियां लिखी हैं मैने  लेकिन आज नहीं...!  आज तो बस मैं हूं और 'मैं' ही लिखूंगा क्योंकि 'मैं' तो बस 'मैं' ही था निरीह, मासूम, निश्छल, निष्कपट लेकिन तुम्हारा अहं मुझमे तलाशता रहा छल, कपट, फरेब, बेइमानी इनबाक्स ही नहीं मेरा मनबाक्स भी भरा पडा है तुम्हारी इन भावनाओं से सच में...! आज तो बस मैं ही लिखूंगा सुनने की फुर्सत कहां है..? और कहने का मलाल भी नहीं..! समय की नदी के उस पार हाथ मलते रहे तुम भी, और इस पार मै भी..! बेशक तुम इसे मेरा मैं (अहं) कह लो लेकिन सदियों से होता आया है यह कि हम तलाशते हैं बस उसे जो कहीं होता ही नहीं..! बस ऐक फरेब होता है..! तुम पर तो बहुत सी पंक्तियां लिखी हैं मैने लेकिन आज नहीं ...!

#गउमाता_की_जै

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बचपन से जिन संस्कारों में पले उनमें घर में बनी पहली रोटी गउमाता के लिये निकालना एक आदत के रूप में शामिल रहा है। जब हमारी दादी जीवित थीं तो उनकी गोसेवा की चर्चा गांव घर की सामाऐं लांघ कर दूर दूर तक फैली रहती थीं। पिछली किसी पोस्ट में इससे जुडा ऐक किस्सा सुनाया भी था जब गाय का एक उदण्ड बछडा उनकी गोदी में चढने की जिद करता हुआ इस तरह आगे बढा कि दादीजी का पांव फ्रैक्चर हो गया था। इसके बावजूद दादी जी की गोसेवा अबाध गति से जारी रही थी ।   दादी जी तो नहीं रही लेकिन उनके किस्से और उनकी दी हुयी सीख आज भी हमारे परिवार की परंपरा हैं। इस परंपरा का निर्वहन जैसे अब हमारे घर की सबसे बुजुर्ग सदस्य माता जी कन्धों पर आ गयी है। रात के भोजन में बनी पहली रोटी सुबह उठकर सबसे पहले गाय को खिलाने के बाद ही उनकी दिनचर्या प्रारंभ होती है।   दो दिन पहले होली वाले दिन भी वो अपने इसी उपक्रम को पूरा करने के लिये वो उठीं और गाय को रोटी खिलाने के लिये घर से बाहर निकलीं तो सामने से दौडकर आ रही गाय को देखकर उत्साहित हो गयीं। दौडकर आती गौमाता के पास आने पर उन्हें भान हुआ कि वह गाय तो बदहवास भागी आ रही

सोचो तो जरा?

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सोचो तो जरा?  आखिर किसके आधातों से  अक्सर निढाल होकर  ऐक शरीर भर रह जाता हूं मैं..! इस शरीर को- किसी लजीज गोश्त सा परोस दिया जाता है तुम सबके आगे और तुम सब अपनी अपनी रूचि का टुकडा चुन लेते हो बच्चे..! अपने लिये चुनते हैं कलेजे का हिस्सा, जबकि मां को भी चाहिये वही कलेजे के टुकडे आखिर तक उन्हें भी मिल ही जाते हैं कलेजे के कुछ बचे खुचे टुकडे, पत्नी चुनती है जांधो का टुकडा, दोस्तों के लिये इसमें से कोई भी हिस्सा चलेगा, लेकिन तुम..! तुम अपने लिये चुनते हो सिर्फ मगज के टुकडे, सिरामिक की प्लेट मे सजाकर कांटो की सहायता से उन्हें करीने से उठा उठाकर चबाना तुम्हे यही तो पसंद है, उस रोज प्लेट में सजे इन्ही मगज के टुकडों मे बच रही थी थोडी जान सो एक टुकडा प्लेट मे पडे-पडे कुलबुला क्या दिया कि हंगामा मच गया हाकिम केे रसोइये से लेकर वेटर तक को मिली जोरदार फटकार और हिदायत इतनी लापरवाही ठीक नहीं मिस्टर..! आइन्दा ठीक से पकना चाहिये..!! और मैं खुश हूं कि रक्तबीज सा.! फिर फिर जीवित होकर तुम सबके लिये तैयार होता हूं मैं ...! सोचो तो जरा? आखिर किसके आधातों से अक्सर मर कर ऐक शरीर भर रह जाता हूं मैं..?

गुरू गोरक्षनाथजी के जन्म के सम्बन्ध में चर्चा

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दुर्गापूजा मोहर्रम समारोहों की व्यस्तता समाप्त होने से पहले ही हमारे सांसद श्री राहुल गांधी जी का तीन दिवसीय अमेठी दौरा आ गया था और अब दो दिन बाद हमारे माननीय मुख्यमंत्री जी का जनपद अमेठी आने का कार्यक्रम नियत हो गया है इसलिये व्यस्तता का आकलन आप स्वयं कर सकते हैं।  इस बीच यह किंवदंती भी सुनी है कि माननीय मुख्यमंत्री जी जिस गोरक्षनाथपीठ के पीठेश्वर हैं उन आदि श्री गोरक्षनाथजी का जन्म स्थान यहीं कहीं जायस कस्बे में स्थित है। समयानुसार उस स्थल की भी पडताल करूंगा आज उन आदि गुरू गोरक्षनाथजी के जन्म के सम्बन्ध में चर्चा करना चाहता हूं।   गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. से 1300ई. के मध्य का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ के जन्म के विषय में जन मानस में एक किंम्बदन्ती प्रचलित है , जो कहती है कि गोरखनाथ ने सामान्य मानव के समान किसी माता के गर

गजेटियर की कहानी ..

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अंग्रजी शासकों ने शासन को सुगम बनाने के लिये प्रत्येक जनपद के बारे सभी प्रकार की जानकारियां जुटाकर उसे गजेटियर के रूप में संकलित करने की अवधारणा को आरंभ किया था। सर्वप्रथम एक अंग्रेज सिविल सेवक (आइ0सी0एस0) विलियम विल्सन हन्टर ने 1861 में भारत में ब्रिटिश शासन के भौगोलिक कोश को तैयार किये जाने की रूप रेखा तैयार की।(अरे!.. वही 'हन्टर शिक्षा आयोग' वाले हन्टर जी..) श्री विलियम 1862 में बंगाल में नियुक्त हुये और वहीं से उन्होंने अपनी इस महत्वपूर्ण योजना पर कार्य आरंभ करते हुये  आंकडे जुटाने आरंभ कर दिये। पहली बार सभी संकलित सूचनायें 1881 में 'द इम्पीरियल गजेटियर आफ़ इण्डिया' के नाम से प्रकाशित हो सकी। अग्रेतर वर्षो में इसी प्रकार की सूचनाओं का संग्रहण ब्रिटिश शासन के अधीन भारत के सभी जनपदों के लिये किया गया और उन्हें प्रकाशित करते हुये डिस्ट्रिक्ट गजेटियर का नाम दिया गया।

मेरी आशंका निर्मूल नहीं थी....!

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कल  मैंने विनोबा भावे के प्रति राजस्व प्रशिक्षण संस्थानों की उदासीनता का बिंदु उठाया था। भूदान आंदोलन के प्रणेता और संत विनोबा भावे जी जयंती के अवसर पर कल मैंने अपने कार्यालय में उनके चित्र पर माल्यार्पण के बाद ही सामान्य कार्यालयीय दिनचर्या का आरम्भ किया। साथ ही साथ दिन में आने वाले प्रबुद्ध आगंतुकों को भी संत के चित्र पर पुष्पांजलि के लिए प्रेरित करता रहा।इसी कड़ी में बार ऐसोसिएशन के सम्मानित अध्यक्ष जी भी  आये और एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह पुष्पांजलि अर्पित करने के अनुरोध का अनुपालन करने के उपरान्त सामने बैठ गए। जिस उद्देश्य के लिए थे उस पर चर्चा के उपरान्त अनायास पूछ बैठे-- "ये जिन सज्जन के चित्र पर आपने माल्यार्पण कराया वो आप गुरूजी है क्या..?" प्रश्न का उत्तर देने के स्थान पर मैंने भी प्रश्न ही पुंछ लिया- "नहीं..! लेकिन क्या आप इस चित्र वाले सज्जन को पहचानते हैं न..?" उनका जवाब नकारात्मक था। बोले- "नहीं तो ..! मैं समझ रहा था कि ये आपके पारिवारिक ईष्ट गुरु होंगे तभी आप इनका इतना सम्मान कर रहे हैं..!" मैं कुछ पल के लिए निःशब्द हो गया, फिर बताया- &quo

शिक्षक दिवस पर गुरु घंटाल को भी नमन

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जीवन यात्रा से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है। सो आज का विशिष्ट नमन जीवन यात्रा के उन अनुभवों को जो कड़वे होने के कारण सबसे अच्छे शिक्षक सिद्ध हुए। जीवन यात्रा के प्रारम्भिक चरणों का ऐसा अनुभव जो याद आ रहा है वो कक्षा सात के आसपास का है। स्थान वही पौड़ी का डी ऐ वी कालेज.... सहपाठियों में कई नाम अच्छे थे लेकिन एक नाम था सलिल.....जी हाँ ..! शायद सलिल ही नाम था उसका...! मैं नया नया प्रभावित हुआ था उसके लंबे बालों को देखकर..! कॉपी पर लिखते हुए उसके बाल आँखों पर आ जाते तो वह बड़ी स्टाइल से सिर को झटक कर उन्हें वापिस अपने सिर पर ले आता । उसे न होम वर्क की चिन्ता रहती और न ही कापियों के कवर फटने की..! वो कक्षा में पीछे की सीट पर बैठता था और मैं अगली पंक्ति में।सलिल जी से मुलाक़ात जा संयोग कुछ इस वजह से बना कि विद्यालय में किन्ही बड़े अफसर का निरीक्षण होना था सो अगली पंक्ति में बैठने वालो को पीछे की पंक्तियों में अलग अलग स्थान पर समायोजित किया गया था ताकि निरीक्षणकर्ता को पिछली पंक्तियों में भी होमवर्क पूरा करने वाले अच्छे छात्रो का आभास मिल सके। उस निरीक्षण का क़िस्सा फिर कभी सुनाऊंगा लेकिन आज सलिल के साथ